Logo
    Search

    अफगानिस्तान में फिर तालिबान की तूती

    hiOctober 05, 2021

    About this Episode

    अमेरिका में घटे 9/11 की घटना के बीस सालों के बाद, ऐसा लगता है मानो दुनिया ने एक चक्र पूरा कर लिया है — अफ़ग़ानिस्तान फिर से वहीं पहुंच गया है, जहां से ये सब कुछ शुरू हुआ था. काबुल के प्रेसिडेंशियल पैलेस के ऊपर तालिबान का झंडा, ऊंचा लहरा रहा है.

    इस हार को हम सिर्फ़ 2021 में घटी एक घटना के तौर पर सीमित तरीके से नहीं देख सकते हैं. ये हार पिछले दो दशकों की हार है, जिसमें से पिछले एक दशक के दौरान अमेरिका लगातार इस बेचैनी में था कि वो कैसे अफ़ग़ानिस्तान को उसके अपने हाल पर छोड़कर किसी तरह से वहाँ से निकल सके.

    Recent Episodes from INDIA'S WORLD / इंडियाज़ वर्ल्ड

    Is Technology Dividing the World Today? | क्या तकनीक दुनिया को बांट रही है? |

    Is Technology Dividing the World Today? | क्या तकनीक दुनिया को बांट रही है? |

    इंडियाज़ वर्ल्ड के इस एपिसोड में समझें कैसे तकनीक के चलते दुनिया में विभाजन की स्थिति बन रही है. अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं पर इसके क्या प्रभाव पड़ रहे हैं और इसने कैसे पूर्व-पश्चिम के देशों के बीच पड़ती दरार की चिंताओं को सामने लाया है जो आने वाले दिनों में दुनिया में मौजूदा मतभेदों को बढ़ा सकती हैं. क्या हम तकनीकी विनियमन की गारंटी देकर एक द्विध्रुवीय दुनिया को रोक पाने में सक्षम हैं? क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय तकनीकी दुरुपयोग की रोकथाम सुनिश्चित करने के लिए तैयार होगा?

    इंडियाज़ वर्ल्ड का यह एपिसोड "रायसीना डायलॉग 2022" पर आधारित है जो  भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र पर भारत का एक प्रमुख सम्मेलन है।

    यूरोप में युद्ध भांडे फूटे पड़ोसी के || A War in Europe Shakes the Neighbourhood

    यूरोप में युद्ध भांडे फूटे पड़ोसी के || A War in Europe Shakes the Neighbourhood

    रूस-यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध अब यूरोप लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करने के लिए तैयार है, और दुनिया भर की उन अर्थव्यवस्थाओं में सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल मचाने के लिए भी तत्पर है जो पहले से ही कोविड-19 से उबरने के लिए संघर्ष कर रही हैं. अमेरिका, जिसने कोरोना वायरस महामारी में  पाँच ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए हैं, अब खुद उच्च मुद्रास्फीति के साथ उच्च ब्याज दरों की उम्मीद कर रहा है, क्योंकि यह quantitative easing से पीछे हटने के लिए मजबूर है. इसके साथ ही, शंघाई में एक बार फिर से बढ़ते चीनी कोविड के नये मामले पहले से ही चरमराती आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित कर रहे हैं.


    इन सभी विघटनकारी घटनाओं में 'यूक्रेन संकट' ही एकमात्र ऐसी घटना जो अभी तक वैश्विक शक्तियों के नियंत्रण में है. क्या वे रूस-यूक्रेन संघर्ष का समाधान बातचीत और शांति समझौते ज़रिये निकाल पाएंगे?


    संदेश स्पष्ट है - युद्ध रुकना चाहिए.

    रूस और यूक्रेन: शांति की आस || Russia and Ukraine: The Long Dark Tunnel to Peace

    रूस और यूक्रेन: शांति की आस || Russia and Ukraine: The Long Dark Tunnel to Peace

    #Ukraine-Russia War: रूस और यूक्रेन के बीच जारी जंग के बीच इस्तांबुल में शांति वार्ता आशा की एक किरण लेकर आई है, क्योंकि यूक्रेन और रूस दोनों ही देशों के प्रतिनिधि इस्तांबुल में आमने-सामने मुलाक़ात कर रहे हैं. क्या इस युद्ध के कुछ कम होने की उम्मीद है?

    इन दोनों ही देशों के बीच बातचीत अभी 28 मार्च को शुरू हुई है, और तुर्की में आमने-सामने की बातचीत निश्चित रूप से एक स्पष्ट सकारात्मक संदेश है. यूक्रेन की ओर से पहली बार कुछ प्रस्ताव पेश किए जाने की ख़बर आई है जिसमें यूक्रेन द्वारा अपनी neutrality को स्वीकार करने, डिमिलिटराइजेशन (असैन्यीकरण) और नेटो गठबंधन में शामिल नहीं किये जाने की बात है.

    दुर्भाग्यवश, अच्छी कूटनीति के लिए एक अच्छे माहौल की ज़रूरत होती है - जो ट्वीटर पर खोदे गए गड्ढों में उपलब्ध नहीं है. आम सहमति की आहट का एहसास हो रहा है. लेकिन, हमें इस बात को समझना चाहिए कि ये वार्ता बेहद मुश्किल और कठिन परिस्थितियों में होने वाली है. 


    रूस बनाम पश्चिम: संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फंसी कूटनीति

    रूस बनाम पश्चिम: संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फंसी कूटनीति

    रूस और यूक्रेन के बीच चार हफ़्तों से भी अधिक समय से जंग जारी है. एक बड़ा युद्ध गतिरोध में है. पश्चिमी देश इस युद्ध में अपनी सेना नहीं भेजेंगे, लेकिन फिर भी उन्होंने रूस पर 'आर्थिक युद्ध' का बिगुल फूंक दिया है. युद्ध के तरीके जो भी हों, लेकिन अंत में यह जंग ज़ेलेंस्की और पुतिन के बीच नहीं, बल्कि रूस और 'पश्चिम' के बीच है. रूस इन उपायों के प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है और खुद के प्रतिवाद की घोषणा कर रहा है. इस बीच समस्या यह है कि ये 'आर्थिक हथियार' न केवल विरोधी पक्ष को चोट पहुंचाते हैं, बल्कि उपयोगकर्ता को भी प्रभावित करते हैं. दुनिया भर के कई अन्य देशों को भी इस तरह के युद्ध की कीमत चुकानी पड़ी है.


    सैन्य अभियान जैसे प्रतिबंधों को शुरू करना आसान है, लेकिन उन्हें समाप्त करना मुश्किल है. प्रतिबंधों की नौकरशाही (बैंकिंग और वित्तीय संस्थान) अपनी गति से चलती है.


    पीछे हटना अधिक कठिन क़दम होने जा रहा है. इसमें कूटनीति को हस्तक्षेप करना ही चाहिए - चाहे वह संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन हों, या फिर दुनिया की अन्य बड़ी शक्तियां हों.


    यह समय बुद्धिमान, संवेदनशील कूटनीति का होना चाहिए -  युद्ध की आग को हवा देने के लिए नहीं, क्योंकि यह कोई  ऐसा संघर्ष नहीं है जिसे अच्छाई या बुराई के दोहरे स्वरूप में निपटाया जा सकता है. अगर इसे उसी दोहरे स्वरूप में देखा गया तो इसका केवल एक ही समाधान होगा - और वो है तीसरा विश्व युद्ध.

    युद्ध और शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय || War vs. Peace - Choosing the Right Side of History

    युद्ध और  शांति के बीच झूलते ऐतिहासिक निर्णय || War vs. Peace - Choosing the Right Side of History

    डिप्लोमेसी को ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी है कि सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे प्रोपगेंडा और 'ट्विटर वॉर' को रोका जाए. ये अच्छी बात है कि यूक्रेन और रूस के बीच बातचीत का सिलसिला जारी है. एक ओर हम देखते हैं कि कुछ आशावादी संदेश समाधान की ओर इशारा कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दर्शकों की प्रतिक्रिया पर ध्यान दिया जा रहा है.

    यह महत्वपूर्ण है कि यूक्रेन में जल्द से जल्द युद्ध विराम हो - बातचीत के बेहतर बिंदु जारी रह सकते हैं. अगर 'यूक्रेन संकट' का समाधान जल्द नहीं मिलता है, तो निश्चित रूप से यूरोप और नेटो शक्तियों का ध्यान वहां स्थानांतरित हो जाएगा.

    यदि यूरोप उस तरह की अराजकता का शिकार हो जाता है जिसे हमने सीरिया या पश्चिम एशिया में विकसित होते देखा है, तो यूरोपीय एकता कहां होगी? इसलिए ज़रूरी है कि यह युद्ध रुके, अन्यथा यह आग किसी को भी अपनी जद में ले लेगी.

    भारत का स्टैंड एक परिपक्व स्टैंड है जिसे बनाए रखने की ज़रूरत है. इस संघर्ष में दोनों पक्षों के पास जवाब देने के लिए बहुत कुछ है. आज जिस 'सार्वभौमिक व्यवस्था' की चर्चा हो रही है, और जिस तरह से उसका क्रियान्वयन हुआ है उस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या वह वास्तव में उतना ही 'सार्वभौमिक' था जितना की उसके होने का दावा किया जा रहा है. और अगर हम एक सच्चे लोकतंत्र हैं, तो हमें दृष्टिकोण और धारणाओं में आपसी मतभेदों का सम्मान करना चाहिए, न कि उन लोगों पर इतिहास लिखने के दौरान ग़लत का साथ देने का आरोप लगाना चाहिए जो इस समय उनकी राय से अपनी एक अलग राय रखते हैं. 

    रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं || Russia and Ukraine: Some Wars Have No Winners ||

    रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं || Russia and Ukraine: Some Wars Have No Winners ||
    रूस और यूक्रेन: इस युद्ध का कोई विजेता नहीं!

    खुद को सुरक्षित बनाने की कोशिश में, इस जंग में शामिल दोनों पक्षों- रूस और नेटो के नेतृत्व में अमेरिका ने खुद को अपनी सबसे बदतरीन असुरक्षा के  हवाले कर लिया है. नेटो के रूस की सीमाओं तक हो रहे विस्तार को लेकर पुतिन काफी बेचैन थे. इस घबराहट में राष्ट्रपति पुतिन ने युद्ध की घोषणा कर दी. युद्ध के मैदान में टैंकों को आगे किया गया और बातचीत का सिलसिला कहीं पीछे छूट गया.  

    21 फरवरी को युद्ध शुरू होने तक, फ्रांस और जर्मनी कुछ हद तक रूस के सबसे बुरे डर को समझने और उसे दूर करने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन, पुतिन ने युद्ध की घोषणा के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया कि इस लड़ाई का केंद्र न अब पूर्व का डीपीआर (दोनेत्स्क) है, और न ही एलपीआर (लुहान्सक) है. बल्कि ये संघर्ष अब

    यूक्रेन के अस्तित्व को लेकर ही सवाल खड़े कर रहा है.

    उम्मीद है कि सभी पक्षों को अब एहसास हो गया होगा कि आज वे जंग की ऐसी स्थिति में फंस चुके हैं, जहां से कोई भी विजेता बनकर बाहर नहीं निकलेगा.


    Reckoning Time for the 20th Century State | व्यवस्था और उस पर गहराता संकट

    Reckoning Time for the 20th Century State | व्यवस्था और उस पर गहराता संकट

    सामान्य से थोड़ा सा दूर खड़ी दुनिया को कोविड19 (Covid_19) के नए वेरिएंट OMICRON ने दोबारा उसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से सब कुछ शुरू हुआ था. बेतरतीब प्रतिक्रिया और यातायात के साधनों पर प्रतिबंध लगने शुरू हो गए हैं. क्या हमने पिछले दो साल से लगातार लड़ी जा रही कोविड (Coronavirus) से जंग में कुछ भी नहीं सीखा है?

    कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus Pandemic) 21वीं सदी की आख़िरी और सबसे कड़ी चेतावनी है उन राज्यों और संस्थाओं को जिन्हें 20वीं सदी की कल्पना और यथार्थ के आधार पर गढ़ा गया था. सच्चाई ये है कि कोरोना वायरस, प्रवासियों या शरणार्थियों का संकट, व्यापार संकट से भी ज़्यादा बड़ा दैत्य हमारे दरवाज़े पर मुंह बाये खड़ा है जो इन सभी समस्याओं के जोड़ से भी ज़्यादा व्यापक और गंभीर है. 

    पूरे विश्व के दरवाज़े पर खड़ा यह संकट है हमारी लगातार हारती  अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और असफ़ल होते इन संस्थानों में तैनात तमाम सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधि. ये सभी 21वीं सदी के ताकतवर संकटों से निपटने में नाकाम दिखाई दे रहे हैं.

    Agricultural Reforms: पटरी से उतरा कृषि "सुधार"- अब आगे क्या?

    Agricultural Reforms: पटरी से उतरा कृषि "सुधार"- अब आगे क्या?

    हाल ही में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने तीन कृषि कानूनों (Three Farm Laws 2020) को अचानक निरस्त करने की घोषणा कर दी. अपने आप में यह आश्चर्यजनक फैसला था. प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) का ये फैसला कृषि सुधार (Agricultural Reforms) विश्लेषकों के लिए किसी झटके से कम नहीं था जबकि अधिकांश लोगों ने इसे नागरिकों और किसान आंदोलन (Farmers Protest) की जीत के रूप में देखा. अगर ऐसा था तो चीजें गलत कहां हुईं?
    कृषि सुधार की जरूरतों से कोई इनकार नहीं करता लेकिन विवाद इस बात को लेकर है कि सुधार क्या होता है. क्या एक अध्यादेश के माध्यम से कृषि सुधार को आगे बढ़ाने का कदम ही समस्याग्रस्त था. कोरोना वायरस महामारी के दौरान इमरजेंसी जैसी स्थिति के बीच इन तीन कृषि विधेयकों को पारित किया गया और जिन्हें बाद में लागू भी नहीं किया गया? अध्यादेशों को लाने का इससे बुरा समय दूसरा नहीं हो सकता था.



    इस बात का श्रेय किसानों को ही जाता है कि जब कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus) के दौरान देश की पूरी अर्थव्यवस्था (Indian Economy) चरमरा गई तब कृषि ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र (Agriculture Sector in India) था जो भारतीय अर्थव्यवस्था का उज्ज्वल सितारा बन कर उभरा. दूसरी तरफ सरकार अध्यादेशों के ज़रिए कृषि कानून किसानों पर थोपने में लगी हुई थी.


    COP26 or Cop Out | COP26: जलवायु परिवर्तन कोई गिल्ली डंडा का खेल नहीं

    COP26 or Cop Out | COP26: जलवायु परिवर्तन कोई गिल्ली डंडा का खेल नहीं

    ग्लासगो में दुनिया भर के सौ से भी ज्यादा देशों ने COP26 समिट के दौरान दो सप्ताह तक जलवायु परिवर्तन पर चर्चा की. इस कार्यवाही पर Covid 19 महामारी और चीन-अमेरिका ट्रेड वॉर की छाया पड़ी। यूरोपीय संघ भी हाल फिलहाल ऊर्जा संकट से गुज़र रहा है जिसने इस दौरान पूरी समस्या को  बढ़ाने का ही काम किया है. इसलिए देखा जाए तो COP26 के परिणामों पर निराशा अप्रत्याशित नहीं है.

    वास्तव में कहा जाए तो, क्लाइमेट एक्शन अब ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के बारे में नहीं रह गया है. यह अब व्यापार, प्रौद्योगिकी और भू-राजनीतिक मुद्दों से जुड़ा एक भू-राजनीतिक मुद्दा बन गया है. 

    COP26: क्या कोयला, कोविड और टकराव की आँच में 'ग्लासगो की ट्रेन' पटरी से उतर जायेगी?

    COP26: क्या कोयला, कोविड और टकराव की आँच में 'ग्लासगो की ट्रेन' पटरी से उतर जायेगी?

    ग्लासगो में COP26 की चर्चा को सार्थक बनाने के लिए इसमें शामिल राष्ट्रों को कोविड के बाद उत्पन्न वास्तविक मुद्दों पर चर्चा करने की सख़्त ज़रूरत होगी. इनमें वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति, गरीबी को दूर करने की चुनौती और जलवायु परिवर्तन को मज़बूत करने के लिए निवेश को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों को शामिल करने की सबसे अधिक आवश्यकता है. यही एकमात्र तरीका है ग्लासगो COP26 को सफल बनाने की अन्यथा इसे विफल होने से रोकना मुश्किल होगा.